छोटा सा शहर था — नाम उसका था Tilakpur। आबादी ज़्यादा नहीं थी, पर लोग बड़े दिलवाले थे। गलियाँ इतनी तंग थीं कि दो साइकिलें आमने-सामने आ जाएँ तो एक को पीछे लेना ही पड़ता था। हर दुकान के बाहर पान की पीक के निशान, हर मोड़ पर एक गप्पू टाइप इंसान और हर नुक्कड़ पर एक चायवाला ज़रूर मिलता था। उन्हीं चाय वालों में से एक था Lallan Chaiwala।
लल्लन की उम्र रही होगी कोई पैंतालीस के आस-पास, पर मूंछें देखो तो लगता था जैसे चाचा चौधरी के मुकाबले में आए हों। सर पर गमछा हमेशा टेढ़ा लपेटा हुआ, और बोलने का अंदाज़ ऐसा कि “अरे बाऊजी” कहते ही आदमी चाय न पीए तो भी मुस्कुरा ज़रूर दे। उसका ठेला स्टेशन के पास वाली पुरानी नीम के नीचे था। नीम भी अब बूढ़ा हो चला था, पर लल्लन कहता, "जैसे मैं हूँ, वैसे ये भी है — दोनों पुराने, पर मज़ेदार।"
सुबह की शुरुआत और चाय की खुशबू
हर सुबह छह बजे उसकी दुकान खुलती। रेडियो पर पुराने गाने चलते, चूल्हे की लकड़ियाँ जलतीं, और दूध उबलने की वो आवाज़ — मानो किसी पुराने रिश्ते की दस्तक हो।
“ओ चिमन! आज फिर लेट आया बे... अखबार दे, और हाँ, पन्ना उल्टा मत देना — उस दिन तूने खबरें उल्टी पढ़वा दीं थीं," लल्लन हर रोज़ चिमन को छेड़ता। और तभी पहुंचती थी स्कूल की मास्टरनी, सीमा मैडम — चाय की सबसे वफादार ग्राहक।
“लल्लन भइया, आज अदरक ज़्यादा डालना। कल क्लास में सात बच्चों ने होमवर्क नहीं किया — गुस्से में गला बैठ गया,” वो कहतीं।“अरे मैडम, आप तो स्कूल की ही मोदी जी हो गईं — बच्चों पर भाषण, खुद चाय पे सर्जिकल स्ट्राइक,” लल्लन की चुटकुलों से हर कोई हँसता।
लल्लन और उसके पुराने दिन
कभी-कभी दोपहर में जब भीड़ कम हो जाती, तो लल्लन थोड़ी यादों की चाय पीता। एक स्टील की पुरानी डिब्बी थी, जिसमें उसकी बहन गुड़िया की तस्वीर थी। अब वो शहर छोड़ के शादी करके जा चुकी थी, पर लल्लन हर हफ्ते उसे चिट्ठी लिखता था — हाँ, आज भी हाथ से।
“गुड़िया कहती थी — भइया, तेरी चाय से अच्छा कुछ नहीं। तू किसी दिन टीवी पे आएगा।” और लल्लन हँसते हुए कहता, “हाँ, टीवी पर आया तो 'Crime Patrol' में ही आउँगा, चाय में ज़हर मिलाने के आरोप में।”और फिर वो अपने सबसे पुराने दोस्त Munna Electrician को याद करता। मुन्ना और लल्लन की दोस्ती स्कूल के टाइम से थी। मुन्ना अब शहर में नहीं था। लेकिन कभी उसकी दुकान के पीछे एक दीवार पर दोनों ने कोयले से लिखा था — “Munna + Lallan = LIFE PARTNERS (chai wale version)”।
हँसी-खुशी के दिन
एक बार शहर में मेले की तैयारी हो रही थी। स्टेज पर कवि सम्मेलन था। भीड़ जमा थी और लल्लन ने वहीँ पास में अपना चाय का ठेला लगाया। भीड़ में एक कवि बोला:
“चाय वो जज़्बात है, हर घूंट में मुलाकात है। प्याली में जो लल्लन दे, वो खुदा की सौगात है।”पूरा मैदान तालियों से गूंज गया।
लल्लन गर्दन खुजाते हुए बोला, “अबे ये कौन था? मुझे तो लगता है मेरी दुकान पर उधारी खा के गया होगा।” और सब हँसी में लोटपोट।
उस रात मेला खत्म हुआ, पर लल्लन के पास दो बोरे भर के यादें बच गईं।
एक दिन का इमोशनल मोड़,
फिर एक दिन, मौसम बदल गया। सुबह-सुबह बारिश हो रही थी। लोग घरों में दुबके हुए थे। दुकान भी बंद पड़ी थी।
लेकिन लल्लन पहुंचा। भीगते हुए ठेले पर कपड़ा डाला, चूल्हा जलाया। और पहली बार उसने दो प्यालियाँ बनाईं — एक अपने लिए और दूसरी उस नीम के पेड़ के लिए, जिसके नीचे वो हर दिन खड़ा होता था।
“तू भीग गया होगा, ले... ये तेरे लिए,” उसने चाय की प्याली नीम की जड़ में रख दी।
तभी एक बच्चा दौड़ता आया, “चाय वाला भइया! माँ ने भेजा है, बोले रोज़ तुमसे चाय लाते हो, आज भी पीना है।”
लल्लन मुस्कुराया, “जा, बोल देना — बारिश तो है, पर चाय की दुकान बंद नहीं होती... ये Tilakpur है बेटा।”
छोटा शहर, बड़ी बातें
उस छोटे शहर में लल्लन अब नाम था। कोई सवेरे उठते ही कहता — "आज लल्लन की मसाला चाय पिएंगे," तो कोई उसके किस्से बच्चों को सुनाता।
एक दिन शहर के एक यूट्यूबर ने वीडियो बनाई — “The Man Behind The Tea”। 2 लाख views आए। लल्लन बोला, “मुझे तो लगा views कोई सब्ज़ी होती है, अब पता चला ये तो इज्ज़त का दूसरा नाम है।”
लेकिन फिर भी, ना तो उसके दाम बढ़े, ना गमछा बदला। बस एक चीज़ बदली — अब उसकी दुकान का नाम था: "Ek Pyali Yaadon Wali Chai"।
आख़िरी प्याली
शाम ढलती है, दुकान सिमटती है, पर नीम के नीचे लल्लन अब भी बैठा होता है। कभी कोई पुराना दोस्त आ जाता है, कभी कोई नई कहानी बन जाती है।
वो कहता है —“ज़िंदगी बस चाय जैसी है... उबालो, मीठा डालो, कभी अदरक, कभी इलायची, और फिर बैठ जाओ किसी पुराने दोस्त के साथ... बातें करते-करते भूल जाओ कि वक्त भी चल रहा है।”
क्योंकि कुछ यादें, कुछ हँसी के पल और एक प्याली चाय — ये ही तो ज़िंदगी है।
- समाप्त -
The Lonely Pen By Aj
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