मैं अकेली चल पड़ी थी — बिना किसी मंज़िल के, बिना किसी साथी के। हाथ में एक पुरानी डायरी थी, जिसमें न जाने कितनी कहानियाँ बंद थीं। लेकिन इस बार, मैं किसी नई कहानी की तलाश में नहीं थी… मैं बस एक अधूरी कहानी को पूरा करना चाहती थी — अपनी कहानी।
शहर पीछे छूट गया था, लोग, शोर और वो सब कुछ जिससे मैं भाग रही थी। एक छोटा स्टेशन आया, मैंने ट्रेन से उतर कर साँस ली — गहरी, थकी हुई, लेकिन सच्ची। कोई मुझे जानता नहीं था, कोई पूछता नहीं था कि मैं कहाँ जा रही हूँ। यही तो चाहिए था मुझे… एक रास्ता जो सिर्फ़ मेरा हो।
स्टेशन से निकलते ही कच्चा रास्ता मिला। धूल उड़ रही थी, मगर मन शांत था। चलते-चलते एक पुराना पेड़ दिखा — उसकी छाँव में बैठ कर मैंने डायरी खोली। पन्ने पलटे, कुछ अधूरी कहानियाँ थीं — एक लड़की जो उड़ना चाहती थी, एक लड़का जो हर बार हार कर भी मुस्कराता था, एक माँ जो चुपचाप सब कुछ सहती थी।
मुझे नहीं पता था मैं क्यों उन कहानियों को छोड़ कर चली आई थी। शायद क्योंकि मेरी खुद की कहानी इतनी उलझी थी कि दूसरों की कहानियाँ बोझ लगने लगी थीं।
मैंने डायरी में लिखा:
> “आज से मैं सिर्फ़ आगे बढ़ूँगी।
पीछे कुछ नहीं,
न रिश्ते, न पछतावे, न सपने।
सिर्फ़ मैं, और मेरा सफ़र।”
सूरज ढलने लगा था। मैं फिर चल पड़ी, इस बार एक गाँव की ओर। वहाँ किसी को नहीं जानती थी, और किसी को मुझसे कुछ लेना देना नहीं था।
गाँव के एक छोटे घर के बाहर एक बूढ़ी औरत बैठी थी। मैंने नमस्ते कहा। उन्होंने मेरी आँखों में देखा और कहा,
“बेटी, सफर लंबा लगता है जब ठहरने की हिम्मत नहीं होती।”
मैं मुस्कराई। उन्होंने मुझे अंदर बुलाया, चाय दी। और वो बोलती गईं — अपने बेटे की कहानी, जो शहर चला गया, और कभी वापस नहीं आया। उनके शब्दों में शिकायत नहीं थी, बस एक आदत थी — बातें कहने की, सुनने की, और फिर से दोहराने की।
मैंने उनसे कहा,
“मैं कहानियाँ लिखती हूँ।”
वो हँसीं और बोलीं,
“फिर तो तू मेरी भी लिख।”
मैंने डायरी खोली और पहली बार किसी और की ज़िंदगी को उसी की ज़ुबानी लिखा। उस बूढ़ी औरत की कहानी लंबी नहीं थी, लेकिन सच्ची थी — और मैंने उसे आखिरी पन्ने पर लिखा, जैसे किसी सफर की मंज़िल पर पहुँच गई हो।
रात को जब मैं वहीं ठहरी, तो सोते समय मन में एक ख्याल आया:
"शायद कहानियाँ सुनाने के लिए नहीं होतीं, जीने के लिए होती हैं।"
सुबह उठी तो फिर चल पड़ी — एक और रास्ते पर, एक और गाँव की तरफ़।
अब कोई मंज़िल नहीं थी, लेकिन हर पड़ाव पर एक कहानी थी। एक नन्हीं बच्ची जो स्कूल जाना चाहती थी लेकिन किताबें नहीं थीं। एक किसान जो फसल काटते वक्त अपनी बीवी को गुनगुनाता था। एक लड़की जो चुपचाप कविताएँ लिखती थी, लेकिन कभी किसी को दिखाती नहीं थी।
मैं सबको सुनती, और फिर लिखती। और हर बार जब मैं आगे बढ़ती, पीछे एक कहानी छोड़ देती।
लोग पूछते,
“तुम्हारा घर कहाँ है?”
मैं कहती,
“जहाँ शब्द हैं, जहाँ कहानियाँ हैं… वहीं मेरा घर है।”
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एक दिन, एक नदी किनारे बैठकर मैं सोच रही थी — ये सफर आखिर किस ओर जा रहा है? क्या मैं किसी अंजान मोड़ पर खुद को पा लूँगी? क्या कोई मुझे पढ़ेगा, समझेगा?
तभी एक बच्ची आई, बोली,
“क्या तुम कहानी सुनाती हो?”
मैंने सिर हिलाया।
वो बोली,
“तो मेरी भी सुन लो।”
वो अपनी गुड़िया की कहानी सुनाने लगी — कैसे वो उसके साथ खेलती है, लड़ती है, और सोती है। उसकी आँखों में एक चमक थी, और आवाज़ में मासूम जादू।
मैंने डायरी का आखिरी पन्ना उसके लिए रखा — और लिखा,
"इस बच्ची ने मुझे सिखाया कि कहानियाँ बताने से ज़्यादा ज़रूरी है — उन्हें सुनना।"
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ये "कहानियों का सफर" एक रास्ता नहीं, एक आदत बन चुका है। एक तरह की तपस्या।
कभी मैं सोचती हूँ — क्या मैं अकेली हूँ इस रास्ते पर?
लेकिन फिर कहीं से एक और कहानी मिल जाती है।
और मैं समझ जाती हूँ —
"जहाँ कहानियाँ हैं, वहाँ कभी कोई अकेला नहीं होता।"
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